मन मेरा पल-पल क्षण-क्षण जा कहीं था अटका……. डाॅ. उमा पिथौरा

किसी पुराने बरगद के पेड की जड सा।।
मन मेरा पल-पल क्षण-क्षण जा कहीं था अटका।।
निस्तब्ध थी ,निःशब्द थी पर क्या करती?
जड ही तो थी इसलिए मौन थी।।
ह्दय कभी मुखर तो कभी गौण।।
बरगद के हर तने से बढती जड को काटे कौन?
तृषणाओं की तृप्ति संयोग नही होती।।
करो अगर मन से कोशिश तो वो कभी नही खोती।।
मै कभी रूकी नही!
गति भी थमी नही।।
फिर क्यों ठिठक गई?
चोट मिली सिसक गई ।।
अनावरित सत्य हुआ।।
सिसकियों को था वहम हुआ।।
कटु असत्य के पीछे भागूंगी ?
साथ रहो भिक्षा मांगूगीं ?
मेरी प्रकृति को था ये स्वीकार नहीं।।
मुझे झुका कर मुझे जीत ले।।
दे सकती किसी को ये अधिकार नही।।
उधर , जोश असीमित और हृदय ममॅरहित।।
इधर, रोष स्वयंजनित पर दंभरहित।।
संवेदनाओं ने बहुत आवाज भी दी।।
कई बार पुकारा प्यार से बात भी की।।
पाषाण को था ममॅ कहाँ?
वाकई था वक्त का अभाव अथवा स्वयंजनित कथा?
मेरी प्रकृति के विरूद्ध मेरा व्यवहार ।।
क्या कर पाएगा मेरे सपने साकार?
या खो दूंगी स्वयं को ही मै हार हार।।
भाग्य फिर पृकट हुआ।।
बोला——–
स्वयं को ही खो दोगी तो क्या होगा?
किस्मत मे जो होगा वही तो अदा होगा।।
क्यों फिर मृगतृषणा सी ये जिन्दगी हम जीते हैं?
मागॅ के पत्थरों को लक्ष्य समझकर ।।
अंततः विष पीते हैं?????
– स्वरचित –
डाॅ. उमा पिथौरा